Friday, July 24, 2020

कुछ शे'र

क्या आया ज़माना कि न है वक़्त न फुर्सत,
सालों   बीत   जाते मुझे ख़ुद से मिले हुए |


वक़्त   के  साथ  क्या  आईने  भी  बदल    जाते हैं,
खुद का चेहरा भी अब बदला सा है दिखता मुझको |


जलते दिल को तुमने देखा, हो गए मायूस क्यों,
हमने देखे हैं यहाँ, शहर -ओ -शहर जलते हुए |


किस किसकी थी दावत, इस जश्न-ए-ज़िन्दगी में, ए खुदा,
लोग   अधिक   आये , या   तेरा   इंतजाम   अधूरा  था |


कैसी अजीब बस्ती बसा ली है दिल में अपने,
हसरतों   का  एक  भी  लम्हा  न  रह  गया |


रोये हैं एक दरख़्त से मिल के सारी रात हम,
इंसान   नहीं   बसते   पत्थर   के   शहर में |


रातों को इश्क़ सुबह से है, दिन को चाँद से,
सायों  के पीछे  भागने  वाले भी  कम नहीं |


ना उम्र की अदा थी, न था  वक़्त का   क़रार,
तुम क्यों मिले टूटी डाल को तूफान की तरह |


चंद सवालात, और  य' ख़ामोशी,
बहुत चुप सी गुज़रती है ज़िन्दगी |


जितनी अधिक भीड़ से गुजरते हैं हम,
उतने    अकेले    होते    जाते    हैं |


एक सूख चुका दरख़्त है इश्क़,
कई सालों से मौसम ख़ुश्क रहा |


सोयी थी छत पे चाँदनी, खामोश और अकेली,
तेरे क़दमों की आहटों ने, इसको जगा दिया है |


एक  चिराग़    मैंने जलाया मक़ान पर,
जरा-जरा सी रौशनी सबको मिला करे |


कहते हैं लोग मुझको नहीं शौक़-ए-ग़ज़लख्वानी,
गुज़रे    हुए     पलों     के    मंज़र    हूँ देखती |

1 Comments:

At 12:28 AM , Blogger Unknown said...

Ultimate...Truth.

 

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