कुछ शे'र
क्या आया ज़माना कि न है वक़्त न फुर्सत,
सालों बीत जाते मुझे ख़ुद से मिले हुए |
वक़्त के साथ क्या आईने भी बदल जाते हैं,
खुद का चेहरा भी अब बदला सा है दिखता मुझको |
जलते दिल को तुमने देखा, हो गए मायूस क्यों,
हमने देखे हैं यहाँ, शहर -ओ -शहर जलते हुए |
किस किसकी थी दावत, इस जश्न-ए-ज़िन्दगी में, ए खुदा,
लोग अधिक आये , या तेरा इंतजाम अधूरा था |
कैसी अजीब बस्ती बसा ली है दिल में अपने,
हसरतों का एक भी लम्हा न रह गया |
रोये हैं एक दरख़्त से मिल के सारी रात हम,
इंसान नहीं बसते पत्थर के शहर में |
रातों को इश्क़ सुबह से है, दिन को चाँद से,
सायों के पीछे भागने वाले भी कम नहीं |
ना उम्र की अदा थी, न था वक़्त का क़रार,
तुम क्यों मिले टूटी डाल को तूफान की तरह |
चंद सवालात, और य' ख़ामोशी,
बहुत चुप सी गुज़रती है ज़िन्दगी |
जितनी अधिक भीड़ से गुजरते हैं हम,
उतने अकेले होते जाते हैं |
एक सूख चुका दरख़्त है इश्क़,
कई सालों से मौसम ख़ुश्क रहा |
सोयी थी छत पे चाँदनी, खामोश और अकेली,
तेरे क़दमों की आहटों ने, इसको जगा दिया है |
एक चिराग़ मैंने जलाया मक़ान पर,
जरा-जरा सी रौशनी सबको मिला करे |
कहते हैं लोग मुझको नहीं शौक़-ए-ग़ज़लख्वानी,
गुज़रे हुए पलों के मंज़र हूँ देखती |
सालों बीत जाते मुझे ख़ुद से मिले हुए |
वक़्त के साथ क्या आईने भी बदल जाते हैं,
खुद का चेहरा भी अब बदला सा है दिखता मुझको |
जलते दिल को तुमने देखा, हो गए मायूस क्यों,
हमने देखे हैं यहाँ, शहर -ओ -शहर जलते हुए |
किस किसकी थी दावत, इस जश्न-ए-ज़िन्दगी में, ए खुदा,
लोग अधिक आये , या तेरा इंतजाम अधूरा था |
कैसी अजीब बस्ती बसा ली है दिल में अपने,
हसरतों का एक भी लम्हा न रह गया |
रोये हैं एक दरख़्त से मिल के सारी रात हम,
इंसान नहीं बसते पत्थर के शहर में |
रातों को इश्क़ सुबह से है, दिन को चाँद से,
सायों के पीछे भागने वाले भी कम नहीं |
ना उम्र की अदा थी, न था वक़्त का क़रार,
तुम क्यों मिले टूटी डाल को तूफान की तरह |
चंद सवालात, और य' ख़ामोशी,
बहुत चुप सी गुज़रती है ज़िन्दगी |
जितनी अधिक भीड़ से गुजरते हैं हम,
उतने अकेले होते जाते हैं |
एक सूख चुका दरख़्त है इश्क़,
कई सालों से मौसम ख़ुश्क रहा |
सोयी थी छत पे चाँदनी, खामोश और अकेली,
तेरे क़दमों की आहटों ने, इसको जगा दिया है |
एक चिराग़ मैंने जलाया मक़ान पर,
जरा-जरा सी रौशनी सबको मिला करे |
कहते हैं लोग मुझको नहीं शौक़-ए-ग़ज़लख्वानी,
गुज़रे हुए पलों के मंज़र हूँ देखती |
1 Comments:
Ultimate...Truth.
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